Man Ki Baat

कवि जब "भावनाओ के प्रसव" से गुजरते है तो कविताएँ प्रस्फूटित होते है। शुक्लजी कहते हैं कविता से मनुष्य-भाव की रक्षा होती है और इसे जीवन की अनुभूति कहा। प्रसाद जी ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है। कविता वह साधन है जिसके द्वारा सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है। कविता का सीधा सम्बन्ध हृदय से है। यथार्थवादी, प्राकृत्रिक-सौंदर्य और जीवन-दर्शन की झलकें लिए कुछ मर्मस्पर्शी कविताएँ चंदन गुंजन की कलम से । मेरी दूसरी ब्लॉग पढें The Cynical Mind

रविवार, 20 अगस्त 2017

THE CYNICAL MIND: कर्मयोग या भोग (संस्मरण)

THE CYNICAL MIND: कर्मयोग या भोग (संस्मरण): इसी साल जनवरी 2017, प्रगति मैदान के पुस्तक मेले में एक अजीब सा पोस्टर चारों तरफ झकझका रहा था। पोस्टर विस्मित करने वाला था। दिल मे गुदगुदी क...

मंगलवार, 2 मई 2017

मैं कौन !


न मैं सत्य हूँ न असत्य हूँ
ना ही मर्त्य मैं न अमर्त्य हूँ
मैं ना पाप हूँ ना निष्पाप हूँ
न वरदान ही न अभिशाप हूँ ||

न जाऊँ नर्क में ना  स्वर्ग ही
मेरा ना अंत है, न उत्सर्ग ही
ना मैं जीत हूँ ना हार हूँ
ना ही प्रकाश मैं, ना अंधकार हूँ।।

मैं न सोच में न विचार में
ना ही बोली और व्यवहार में
ना ही युक्ति में न विरक्ति में
मैं हूँ चेतना की शक्ति में
मैं तरंग हूँ आनंद का
आनंद ही प्रतिरूप है
मैं ही साक्षी हूँ और साक्ष्य भी
यह मेरा भव्य स्वरुप है। । 
                                                      : 'चन्दन गुंजन'

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

मैं ज़िंदा हूँ !

हाँ , मैं ज़िंदा हूँ ॥

साँसें  चल रही हैं, लहू बह रहा है
धमनियों में, लगातार।
शायद इसलिए,
मैं ज़िंदा हूँ ।  
                           हाँ , मैं ज़िंदा हूँ ...  ।।

पर एक दिन ,
रुकेगा ये अनवरत प्रवाह ,
धमनियों से लहू का।
उस दिन किसी की आँखों से बहेगा लहू  ।
मेरे  ना   होने  का   सदमा होगा  ।
मातम होगा बसंत में , कुछ क्षण की लिए  ।
फिर,
सब  हस्बेमामूल   ।।


तो क्या,
 मैं,     फिर भी ज़िंदा रहूँगा ?
या,  बेजान सी  तस्वीर में हो जाऊंगा कैद ?

रुकेगा ये साँस भी ,
जिससे बू आती है रंजिश की ;
जिसमे  महकते हैं फूल
सौहार्द्र और स्नेह का भी।

सत्य है यह अकाट्य , कि
आविर्भाव का है अंत   
पर, ज़िंदा रहना अनंत  ।।

कहीं ऐसा ना  हो , कि

मेरे होने का एहसास 
मेरी  हड्डियों के गलने-खपने से  मापा  जाये  

मंगलवार, 16 अगस्त 2016

एक बेचारा प्यार का मारा

ना जाने  कैसी रही होगी उसका वीकेंड  ?
मेरा तो जैसे लगता है हो गया दी एन्ड  ॥

 कुछ दिन ही पहले  उससे, अभी हाल  में मिला ,
देखा तो देखकर उसे, फूल दिल में एक खिला  ।
बातें हुयी दो -चार ,   रात भर सभी के साथ ,
पर जाते जाते उसने था,  नहीं मिलाया हाथ ।
मैं बातूनी था,  करता रहता सबको परेशान ,
कभी कभी  मेरे बात पे  होते थे  सब  हैरान   ।
प्यार आँखों से बढ़ा,  हो  गया  मैं   उदंड
                                मेरा तो जैसे लगता है हो गया दी एन्ड   ॥

अतीत में है जीती वो,  प्रेजेंट छोड़कर ,
मैंने नहीं कहा कभी,  कुछ सोच समझकर ।
बातों ही बातों में कभी   तकरार होता था,
पर प्यार का था मारा , दिल  चुप -चुप के रोता  था  ।
होती थी जब वो साथ तो,  खिलता था रोम -रोम ,
पर याद बहुत आती थी , जब होता था अपने होम  ।
अरे , नाम से  उसके ही लगता  था  करंट
                                      मेरा तो जैसे लगता है हो गया दी एन्ड  ॥

लगता है अब  बेचारे  की  भांति  ही  रहूँगा ,
ले जायेगा कोई और उसे, मैं देखता ही रहूँगा ।
कैसे करूँ  बयान  उसे  हाल-ए -जिगर  का ,
तारीफ क्या करूँ  मैं उसके जीरो फिगर का  ।
सोचता हूँ रोज़ कह दूं उसे, अपने दिल की बात ,
बातों ही बातों  में,  मैं  भूल जाता अपनी बात ।
एफबी पे या वाट्सएप्प पे करूँगा मैं मेसेज सेंड ,
होने नहीं दूंगा मैं अपने प्यार का दी एन्ड ,
                                            होने नहीं दूंगा मैं अपने प्यार का दी एन्ड  ॥

  

रविवार, 27 सितंबर 2015

मन का गीत


 अक्सर करता है दिल
 गाने को , गुनगुनाने को

 गीत समृद्धि का,
 गीत ख़ुशी का ,

 गीत  उत्थान का ,  कल्याण का
 पूर्णता का         परिपक्वता का
 गीत   प्यार का  ,      सौहार्द्र का
गीत आदमियत के, एहसास  का
            मानवता  के आभास का

पर ,
गा   नहीं पाते  ।

पता नहीं क्यूँ

                            कुछ रोकता है,
                            कोई रोकता है ,
                  और हम  ठहर जाते है ।

फिर लोग कहते हैं
        मरा , बेजान
मुँह मोड़ते हैं वही
जिसके कारण  गा ना पाया । ।

इसलिए
           उठो,       गाओ गीत
                       ज़िन्दगी का
                             ख़ुशी का
ग़म तो मात्र दिमागी फितरत है ॥

गाने का  कोई समय नहीं , नहीं  कोई स्थान ।
गाते   रहो          मिलेगी                पहचान ॥

इसलिए हे पथिक ,

इतिहास के पन्नों में 'जी कर मरना '
मर कर जीने से इतिहास नहीं बनता ॥


शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

टेम्पोवाला

अनजाना  नहीं है ,मेरे लिए 
अब ये शहर। 
बहुत दिनों से रहता आ रहा हूँ ;
फिर भी ना जाने क्यों ,
महसूस करता हू तन्हा -तन्हा। 

अपने आप से ही बाते करता हूँ। 
और ऐसे ही करते है 
सरे जन। 
कोई बोलना नहीं चाहता 
तो, कोई बोल नहीं पता। 

सबको अपने की पड़ी है;  
रमे है लोग ,
चिंता व चिंतन के 
सम्मिश्रण में।
 
वो पकी हुयी दाढ़ियो को 
हीरो कट लुक दिए, 
टेम्पोवाला  !
विस्मय भरी नजरो से ,
भिकाजी कामा  प्लेस पे 
निहारते है, आवाज़ लगाते है ; 
बड़ी बड़ी इमारतों के बीच ,
बड़ी-बड़ी उम्मीदें लिए। 

आखिर सूरज निकला ,
सवेरा कर गया ,एक तीस वर्षीय 
सरदार जी ने। 
गन्तव्य को पहुचने ,
खड़ -खड़  के साथ टेम्पो स्टार्ट हुयी ,
आँखों से ओझल। 

अब उसी जगह दूसरा 
टेम्पोवाला ……….. ॥  



रविवार, 9 जून 2013

आकांक्षा


कभी  न कभी चाहता ही  है मन ;
कभी-न-कभी तो होता ही है एहसास  ;
बीच दरिया की नाव ,
लगी हो आस-पास ।।

 कभी  न कभी तो चाहता ही है दिल
की उन्मुक्त गगन में उड़ते रहे ,
 होकर अलग अपने काफिले से  ।।

कभी  न कभी तो चाहता ही है मन
बन जाये एक लम्बी रेस का घोडा
सुनसान सड़क पर दौड़ते रहे , बिना हँकाते  ।। 

कभी  न कभी तो इच्छा होती है
 वो चाँद जो दूर बैठा है , हो मेरे पास
सार काम कर लू उसकी रोशनी में ।। 
 
कभी  न कभी तो लगता है, कि
कोई लगा दे आग शांत पटाखे में
और चिंगारी बनकर बिखर  जाऊँ  ;
सदा के लिये॥  

                                : चन्दन गुन्जन