कभी न कभी चाहता ही है मन ;
कभी-न-कभी तो होता ही है एहसास ;
बीच दरिया की नाव ,
लगी हो आस-पास ।।
कभी न कभी तो चाहता ही है दिल
की उन्मुक्त गगन में उड़ते रहे ,
होकर अलग अपने काफिले से ।।
कभी न कभी तो चाहता ही है मन
बन जाये एक लम्बी रेस का घोडा
सुनसान सड़क पर दौड़ते रहे , बिना हँकाते ।।
कभी न कभी तो इच्छा होती है
वो चाँद जो दूर बैठा है , हो मेरे पास
सार काम कर लू उसकी रोशनी में ।।
कभी न कभी तो लगता है, कि
कोई लगा दे आग शांत पटाखे में
और चिंगारी बनकर बिखर जाऊँ ;
सदा के लिये॥
: चन्दन गुन्जन